Posts

Image
  खादी के इन्हीं सूतों से मेरी दादी को हर महीने पांच – छः रूपये मिल जाते थे  जिन से  उसके छोटे मोटे खर्चे निकलने के बाद भी उसके पास कुछ पैसे हमेशा रहते थे. पूरे वर्ष भर में उसको ज्यादा कपड़ो की जरूरत तो नहीं होती थी, लेकिन जो 2–4 धोतियां, सर्दियों में रजाई या खादी सूती शॉल उसे चाहिये थे वे सारी चीज़े आ जाती थीं। कभी कभी उसे उपहार में भी ऐसी धोती या चादरें  मिल जाती थी. लेकिन मेरी दादी उन  पर निर्भर नहीं थीं।  सूत बेचकर   इन चीजों में वह लगभग स्वावलंबी हो गयी थी. मैं जब तक हाई स्कूल में पढ़ता था तब तक बराबर मुझे यह काम उसके लिए करना पड़ता था. शुरू में तो बड़ा ही बोरिंग लगता था यह काम, अकेले जाना,  लाइन में लगना फिर वापस अकेले आना. लेकिन मेरी दादी कभी मुझे चार आने कभी दो आने दे देती थी. इनसे मुझे  लगभग हफ़्ता भर तो ज़रूर ही स्कूल में नमकीन या मिठाई टिफिन में खाने को पैसे हो जाते थे. वैसे भी दादी ने कहा तो करना ही था. यह खादी भंडार उन दिनों में बड़ी भीड़ भाड़ वाली जगह होती थी. मुझे भी जाकर लंबी कतार में खड़ा होना पड़ता था ताकि मेरी बारी आ...

BEFORE iT IS TOO LATE : WAKEUP CALL TO SAVE THE GANGA

Image
  प्रकाशनार्थ जब इस देश में गंगा बहती थी...  मुझे इस बात से आश्चर्य नहीं होता है कि करोड़ों रुपयों से बने नदी किनारे के बांध एवं उन पर बनी सड़कें टूट जाती हैं। सरकारी विभागों में तो ऐसा होता ही है. मुझे आश्चर्य उससे अधिक इससे है कि हम इससे परेशान - चिंतित नहीं होते हैं कि गंगा अब अपनी सहायक नदियों का पानी बाढ में भी क्यौं नहीं ले पाती है, या गंगा क्यौं सूख और सिकुड़ रही हैं! लगता है  नदियों  का इस प्रकार प्रवाह हीन हो जाना  जैसे दूर चीन - कोरिया से आई कोई ख़बर हो। मैं यह मानता हूं की बाढ़ में क्षतिपूर्ति के लिए सरकार की ओर से लोगों को जो ₹6,000/- प्रति परिवार की आय होती है वह मुफ्त में आई हुई अच्छी आय है. लेकिन क्या यह आय यहां हो रही कृषि की क्षति, व्यापार की क्षति, बिमारी, मृत्यु, इतने दिनों तक गंदगी में रहने से अधिक की प्राप्ति है?  हर वर्ष कई  लोग एक बार, कुछ लोग दो-दो बार, कुछ लोग हर महीना कांवर लेकर सिमरिया में या सुल्तानगंज में गंगाजल भरकर वैद्यनाथ धाम पैदल जाते हैं. मैंने उनसे भी पूछा है कि क्या आपने कभी यह सोचा है कि गंगा इतनी सिकुड़ क्यों गई? ...

My Last Day at IIT Madras

  I had a first hour class, starting at eight. With the help of the alarm on the cell phone clock, I got up at 6.30, made myself some tea. Mukta had not slept well.     She was reading some Hindi book in the drawing room. I took my tea and joined her. Don’t begin reading / writing, she said, if you have to be in class at eight. As if I did not know. I let that pass. We had some conversation, mainly regarding the forthcoming wedding in the family. Mukta wanted me to drink my tea faster. Tell me how, I wanted to ask her, but then I let that pass too. Washed, muttered some   mantras,  lighted an incense stick, got into some starched clothes that Mukta had in the meanwhile laid out, had no time for breakfast, took a few brickbats from Mukta, returned a few, and without waiting for more took my bicycle and was in the class within a few minutes past eight. As Lord Mountbatten said, too much insistence on punctuality can be a fetish. It is not that learning,  ...