खादी के इन्हीं सूतों से मेरी दादी को हर महीने पांच – छः रूपये मिल जाते थे  जिन से  उसके छोटे मोटे खर्चे निकलने के बाद भी उसके पास कुछ पैसे हमेशा रहते थे. पूरे वर्ष भर में उसको ज्यादा कपड़ो की जरूरत तो नहीं होती थी, लेकिन जो 2–4 धोतियां, सर्दियों में रजाई या खादी सूती शॉल उसे चाहिये थे वे सारी चीज़े आ जाती थीं। कभी कभी उसे उपहार में भी ऐसी धोती या चादरें  मिल जाती थी. लेकिन मेरी दादी उन  पर निर्भर नहीं थीं।  सूत बेचकर   इन चीजों में वह लगभग स्वावलंबी हो गयी थी. मैं जब तक हाई स्कूल में पढ़ता था तब तक बराबर मुझे यह काम उसके लिए करना पड़ता था. शुरू में तो बड़ा ही बोरिंग लगता था यह काम, अकेले जाना,  लाइन में लगना फिर वापस अकेले आना. लेकिन मेरी दादी कभी मुझे चार आने कभी दो आने दे देती थी. इनसे मुझे  लगभग हफ़्ता भर तो ज़रूर ही स्कूल में नमकीन या मिठाई टिफिन में खाने को पैसे हो जाते थे. वैसे भी दादी ने कहा तो करना ही था.
यह खादी भंडार उन दिनों में बड़ी भीड़ भाड़ वाली जगह होती थी. मुझे भी जाकर लंबी कतार में खड़ा होना पड़ता था ताकि मेरी बारी आए तो सूत तोला जा सके फिर वह किस किस्म का है,  एक नंबर है या दो नंबर है इस तरह से कुछ उनकी ग्रेडिंग होती थी और उसी ग्रेडिंग के हिसाब से सूत के लिए पासबुक में पैसे जमा किए जाते थे. आप चाहें तो पैसे ले लें  आप चाहें तो कुछ और ले लें.   लौटते मैं उसी थैले में, जिसमें मैं सूत और पासबुक ले जाता था, दादी के लिए एक निश्चित मात्रा में  वहां से रुई लाता था. वह रुई बहुत साफ़ सुथरी नहीं होती थी, उसकी धुनाई करवानी पड़ती थी. कभी कभी घर पर धुनिया आते थे और रुई की धुनाई कर देते थे कभी कभी उन्हें लेकर पास ही के गांव में जाना पड़ता था. रुई धुनाई की मशीन लग गई थी सरवारा में, मुसलमानों की एक छोटी सी बस्ती थी  वहां किसी उद्यमी  ने रुई धुनाई की मशीन लगा ली थी.  काफ़ी चलकर वहां जाना पड़ता था, लेकिन मेरी दादी उनके काम से खुश थी। 

उस ज़माने में आस पास के 15 – 20 गांवों की महिलाएं, पुरुष कम ही आते थे, वहाँ आती थीं. कुछ के बच्चे भी सूत लेकर आते थे. मोहम्मदपुर खादी भंडार  काफी दूरी में फ़ैला हुआ था. यहां पर सूत और कपड़े खरीदे बेचे जाते थे. उसके लिए अलग शोरूम भी था. एक मैनेजर थे, दर्जनों कार्यकर्ता थे. यहां वस्त्रों की रंगाई भी होती थी. उसके लिए एक अलग यूनिट थी.




 इस दूसरे चित्र में जो खंडहर आपको दिखाई दे रहा है, वहां किसी ज़माने में मोहम्मदपुर खादी भंडार की रंगाई  मशीन हुआ करती थी.  ड्रॉइंग मशीन भी था. कितने कपड़े रंगे जाते थे यह पुराने आंकड़े अब शायद उपलब्ध नहीं हैं।
हम लोगों ने उस कमरे में भी झांक कर देखा जो यहां के मैनेजर का कमरा हुआ करता था. अब वहां कुछ भी रिकॉर्ड बचा हुआ नहीँ है. काफी मात्रा में एक ही मशीन पर कपड़ों की रंगाई होती थी.  रंगने के लिए पानी और कपड़े के रंग का मिश्रण तैयार किया जाता था. उसे लकड़ी के ईंधन से बहुत बड़े कडाह में तैयार किया जाता था. एक ही बड़ा सा रोलर था, शायद उस रोलर में एक साथ 100 गज कपड़ाआ जाता होगा। शुरू शुरू में वह हाथ से चलाया जाता था, जैसे पुराने जमाने में मोटर स्टार्ट करते थे, उसी तरह के हैंडल से। बाद में उसमें मोटर भी लगाया गया. एक ही साथ उसकी रंगाई भी हो जाती थी, कपड़ा वहां पर निचोड़ भी लिया जाता था एक बहुत बड़ा टब होता था. आज भी उस मशीन का जर्जर अंग वहां पर पड़ा हुआ है. ठीक स्वतंत्रता के बाद तक भारत में खादी आंदोलन कितना लोकप्रिय और कितना सशक्त हो गया था और किन कारणों से यह टूट गया वह तो शोध का विषय है. खादी भंडार आज के औद्योगिक युग की संस्कृति एवं कुछ गलत नीतियों से भी टिक नहीं पाया, लेकिन जब तक था, बड़ा लोकप्रिय था. ऐसी स्थिति नहीं होती थी कि आप  गए और तुरत चले आए. कतार में खड़ा होना पड़ता था.  हमारे फोटोग्राफर  दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के डा प्रदीप कांत चौधरी हैं. अब इन्होंने  स्वेच्छा से अवकाश ले लिया है और मिथिला में वस्त्र उद्योग को पुनर्जीवित करने में लगे हुए हैं.

 
खादी के वस्त्रों की रंगाई वाले यूनिट का यह एक दूसरा दूर से लिया हुआ फोटो है. आप देख सकते हैं बाहर का स्ट्रक्चर अभी भी काफ़ी बचा हुआ है। कितने लोग यहां काम करते होंगे,  कितने कपड़ों की रंगाई यहाँ होती होगी वह इस इकाई की लंबाई चौड़ाई से आपको पता चल सकता है। अंदर अब सिर्फ जर्जर मशीनें रह गई हैं, ऊपर का छप्पर भी नहीं बचा है. जो कुछ भी यहां से ले जाया जा सकता था उसे लोग उठाकर ले गए हैं.  फिर भी काफ़ी कुछ बचा हुआ है। यह फ़ोटो दो दरवाजों के बीच के गैप में कैमरा डालकर लिया गया है. आप देख सकते हैं कि कुछ फटे पुराने, गीले, फफूंदी तथा कीड़ों और नमी में नाश हो रहे रजिस्टर भी यहां पड़े हुए हैं। पेड़ उग गए हैं,  बरसात का सारा पानी यहीं आता है और अब यहां से कुछ भी बचाकर निकाल पाना मुश्किल है. परंतु आंख बन्द करते ही मुझे दिखता है यहाँ  किसी ज़माने में मैनेजर का कमरा हुआ करता था।  खादी भंडार के उस माडल की एक बहुत ही अनोखी बात यह थी कि सभी कार्यकर्ता का वेतन बराबर ही होता था. 5 – 10 रुपए का फर्क हो सकता था, लेकिन जवाबदेही का बड़ा ही फर्क होता था। जो यहां प्रबंधक होते थे, वह यहां सारे विभागों में काम कर लेने के बाद, कई वर्षों के अनुभव के साथ यहां के प्रबंधक होते थे.  उनकी जिम्मेदारी के अंदर यह सारा खादी भंडार होता था। किसी को खादी भंडार से कोई शिकायत हो  -  पैसे लेना चाहे नहीं मिल रहा है, सूत की ग्रेडिंग ठीक नहीं हुई, उससे संतुष्ट नहीं हैं, या रंगाई के लिए कपड़े दिए, उनका रंग उड़ गया, उसकी शिकायत करनी है, आदि, तो जो यहां मैनेजर होते थे उनको पूरा पावर था कि वह खादी भंडार के हर विभाग की शिकायत सुन सकें,  शिकायत दूर कर सकें, और लोगों पर नज़र रख सकें.  अनुशासन रखें,   और पूरे प्रांगन का प्रशासन देखें। सामान्यतयः उस वक्त की संस्कृति और मानसिकता में वहां का मैनेजर एक प्रभावशाली व्यक्ति हुआ करता था. इलाके में उनकी इज्ज़त हुआ करती थी, सार्वजनिक त्योहारों में उनको बुलाया जाता था.  उनका कमरा काफ़ी साफ़ सुथरा साजो सज्जा वाला हुआ करता था. वह कमरा खादी भंडार का केंद्र बिंदु हुआ करता था. लेकिन कुछ नीतियों के कारण और कुछ फैशन से खादी भंडार की लोकप्रियता घटने लगी. उपेक्षावश खादी भंडार की जब ऐसी स्थिति हो गई वहां कर्मचारी नहीं रह गए  वहां सूत आने बंद हो गए जो आए उनकी बिक्री नहीं हुई  जो बिक्री हुई वो पैसे यहां तक नहीं आए, धीरे धीरे यह इस तरह के खंडहर में बदल गया।


तीन बीघे में फैला हुआ यह खादी भंडार इसी कमरे से चलाया जाता था, परंतु आज यहां उगे हुए पेड़, गिरे हुए खपड़े, लकड़ियां, गीले मलबे से भरा यह कमरा अभी भी उस पुराने गौरव को याद करता है जिसमें यहां से पास पड़ोस  के 15 – 20 गाँव में धर्म परायण, निष्ठा रखने वाली महिलाओं - देशभक्त पुरुषों को ना सिर्फ़ कपड़े बल्कि जीविका का साधन भी मिलता था।

सामने यह बिक्री विभाग है और सूत बेच लेने के बाद या खरीद लेने के बाद या कपास खरीद लेने के बाद या सूत खरीद लेने के बाद कपास खरीदने से कपड़ा खरीदने तक का सारा काम यहीं से हुआ करता था यहां भी काफ़ी भीड़ हुआ करती थी। जैसा मैंने बताया कपास लेने के लिए कपड़े लेने के लिए काउंटर हुआ करता था काफ़ी साफ़ सुथरी जगह हुआ करती थी और काफ़ी शांत भी लेकिन आज इसकी हालत भी खादी भंडार के प्रांगन में अन्य भवनों और अन्य कमरों के तरह ही है।




सामने के फ़ोटो में मेरे साथ श्री भोगी महतो चल रहे हैं। हर भाग्य में जैसे दुर्भाग्य की कहानी और हर दुर्भाग्य में जैसे भाग्य की कहानी होती है उसी तरह से खादी भंडार की इस दुर्भाग्य वाली कहानी में यहां श्री भोगी महतो अभी भी उपस्थित हैं भोगी महतो मोहम्मदपुर गांव के ही पुस्तैनी निवासी हैं और पिंडारुच हाई स्कूल में मैं इनका सहपाठी हुआ करता था। हम दोनों ने ही वहां छठी कक्षा से ग्यारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई की और हम दोनों साथ ही 1965 ईस्वी में वहां से मैट्रिक पास किया मैं और आगे पढ़ने दरभंगा चला गया और भोगी महतो कुछ दिनों तक अपनी पुश्तैनी कृषि भूमि में काम करने के बाद यहीं खादी भंडार में नौकरी पा गए और दरभंगा से पटना तक मोहम्मदपुर से पटना तक बिहार के कई खादी भंडारो में इन्होंने काम किया अच्छा काम किया नाम कमाया और दरभंगा खादी भंडार से यह अवकाश प्राप्त कर गए उसके बाद जब यह गांव आए तो इन्होंने देखा कि मोहम्मदपुर के खादी भंडार की स्थिती बहुत अच्छी नहीं है इन्होनें इसके यथार्थ कार्य को खादी भंडार के ऊंचे अधिकारियों को दिया फिर उन लोगों ने इन्हीको यहां दोबारा मैनेजर बहाल किया और कुछ दिनों के बाद जब इनकी रिटायरमेंट आवश्यक हो गई तो इनको रिटायर कराने के बावजूद भी इनका नाम प्रबंधक में ही रखा और इनको ₹1000 पेंशन देकर यहां रखा गया। ज्ञातव्य है कि ₹1000 आज के जमाने में कुछ भी महत्व नहीं रखता है लेकिन खादी भंडार यह पेंशन शायद किसी को नहीं देता है या किसी किसी को ही देता है बदले में भोगी महतो को यह जिम्मेदारी दी गई की जो खादी भंडार की संपत्ति वहां है उसका प्रांगन है उसकी रक्षा करें उसका रखरखाव करें तब तक जब तक खादी भंडार यह तय नहीं कर लेता है कि इस संपत्ति का क्या करना है। जब यहां भोगी महतो दुबारा आए वापस तो खादी भंडार का काफी बड़ा हिस्सा स्थानीय लोगों के द्वारा कब्जे में ले लिया गया था निजी उपयोग के लिए कुछ लोग यहां पर भैंस का खटाल चलाते थे कुछ लोग अपने लिए ट्रैक्टर और बैलगाड़ी की पार्किंग वगैरह बना चुके थे कुछ लोग जमीन पर कब्जा कर के घर बनाने की योजना बना रहे थे और वहां रहना भी शुरू कर दिया था कुछ स्थानीय पुलिस की मदद से कुछ स्थानीय लोगों की मदद से भोगी महतो जी ने इन सारे encroachment को लगभग यहां से हटा दिया है अब सिर्फ एक शिक्षक यहां आते हैं बच्चों को पढ़ाने के लिए जो कि स्थानीय गरीब बच्चो को पढ़ाते हैं यहां के बरामदे में उन्होंने खुद अपना ब्लैकबोर्ड लगाया हुआ है और एक चटाई बिछाई हुई है वहां बैठकर पढ़ाते हैं और श्री भोगी महतो जी इनको पढ़ाने देते हैं अभी भी कुछ सामान बाहर के लोगों का पड़ा हुआ है लेकिन खतरा इस वक्त टल गया है। भोगी महतो जी इसी प्रांगन का उपयोग कर जैसे जो मास्टर पढ़ाते हैं एक व्यक्ति अभी भी है जो ट्रैक्टर यहां पर रखते हैं तो उन लोगों से पैसे वसूल कर लगभग ₹3000 महीना खादी भंडार के लिए आयकर देते हैं और उन्हीं 3000 रुपयों से अब यह पूरे प्रांगन को नित्य साफ रखते हैं उसकी रक्षा करते हैं और उसका जो जरुरी खर्चा है जैसे बिजली के एक बल्ब का बिल या कभी छोटा मोटा मरम्मत उन्ही से निकालते हैं। अपने लिए वह यहां से कुछ भी नहीं लेते हैं जबकि वह यहां पर सुबह शाम दिन रात एक घटिया और मछरदानी लगा कर रहते हैं इनके पास पंखा नहीं है खुद के उपयोग के लिए बिजली नहीं है और शायद उसकी इनको जरूरत भी नहीं है इनके तीन बेटे हैं तीनों ही दिल्ली नोएडा में काम करते हैं और इनसे आग्रह करते हैं कि आप भी वही आकर रहे लेकिन भोगी महतो जी को गांव से भी प्यार है और खादी भंडार से भी प्यार है तो भोगी महतो जी यहां रह रहे हैं और भीष्म पितामह की तरह तब तक यहां रहेंगे जब तक वह इसको चारों तरफ से सुरक्षित नहीं देख लेते हैं मुझे बड़ा गौरव है कि मुझे भोगी महतो जी के साथ पढ़ने का पिंडारुच उच्च विद्यालय में अवसर मिला ईश्वर इनको दीर्घायु करे इनका यश फैले।


यह गाड़ी अब बाहर के कुछ लोग खादी भंडार के प्रांगन में रखते हैं और शायद इसके लिए वह खादी भंडार को कुछ पैसे भी देते हैं इन्हीं पैसों से श्री भोगी महतो जी प्रांगन की साफ सफाई रख रखाव चलाते हैं।
नीले आसमान की ओर देखता हुआ यह खादी भंडार आज भी बता रहा है की कहानी अभी खत्म नहीं हुई है यदि भारत को सचमुच ही एक शक्तिशाली देश और एक शक्तिशाली समाज बनना है तो इसका कोई भी विकल्प नहीं है कि गांव में उद्योग गांव में छोटी मोटी इकाईयों का बड़ा समूह तैयार हो। खादी भंडार का जो अनुभव है और उसकी जो भी संपत्ति बची हुई है जो भी इसकी संपदा है उसका उपयोग कर इस इलाके में हम उन सभी लोगों के लिए आज भी रोजगार उत्पन्न कर सकते हैं जो अभी भी 'smart ’ नहीं है जो अभी भी शायद इतनी अंग्रेजी नहीं बोल सकते हैं जितना न्यूयॉर्क या लंदन में काम करने के लिए आवश्यक हो बाकी सभी के लिए इन 15 – 20 गांव में रह रहे युवक युवतियां महिलाएं पुरुष इन सभी के लिए रोजगार उत्पन्न करने की क्षमता खादी भंडार में आज भी है आज भी सरसों का तेल पेरने की वह मशीन कपड़ा रंगने की वह मशीन कपड़ा बनने की वह इकाई वह सारी की सारी चीजें यहां खड़ी हैं भाग्यवश अब कंप्यूटर आ गया है भाग्यवश खादी भंडार से 10 किलोमीटर की दूरी के अंदर ही एक हवाई अड्डा जहां से आज भी 5 से 7 उड़ाने अभी भी होती हैं वहां उपस्थित है हम चाहे तो यहां की पैदावार कहीं भी भेज सकते हैं बहुत लागत की भी आवश्यकता नहीं है इसको फिर से खड़ा करके जीवित करने में शायद कुछ एक लाख में ही खड़ा हो जाए जो कि यहां का भी कोई आदमी लगा सकता है यदि प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप की बात करें तो सरकार को एक पैसे भी खर्चा नहीं करना है आवश्यकता सिर्फ एक अच्छे व्यवसायिक सोच की है एक अच्छे प्रबंधन की है और एक रिव्यू की है जिस रिव्यू के केंद्र में यह प्रश्न होगा कि क्या गांव की संपत्ति से ही गांव को फिर से मजबूत बना सकते हैं उसका उत्तर लिए आसमान की ओर देखता हुआ यह खादी भंडार आज भी खड़ा है आज नहीं तो कल बदलना तो है ही। धन्यवाद।

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